
अम्बेडकरनगर। जनपद की तहसील टांडा समेत विभिन्न क्षेत्रों से उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ तक रोजाना सैकड़ों प्राइवेट बसें अवैध रूप से ठेका परमिट के नाम पर लोकल सवारियों को ढोते हुए बेखौफ दौड़ रही हैं। जबकि परिवहन आयुक्त कार्यालय द्वारा जारी किए गए परमिट सिर्फ “रिज़र्व पार्टी” के लिए वैध हैं, न कि आम जनता को ढोने के लिए।इन बसों के संचालन से सरकार को प्रतिदिन लाखों रुपये के राजस्व की हानि हो रही है। नियमानुसार जहां एक रूट पर सिर्फ एक बस की अनुमति है, वहां एक ही मालिक द्वारा “आर्मी” नाम का दुरुपयोग करते हुए पाँच-पाँच बसें धड़ल्ले से दौड़ाई जा रही हैं।टांडा-लखनऊ रूट पर बस चालकों और कंडक्टरों में आए दिन नंबर को लेकर विवाद और झगड़े होते हैं। पहले भी इन झगड़ों ने खूनी संघर्ष का रूप लिया है। सूत्रों के मुताबिक ऐनवां चौकी पर यदि किसी बस चालक या कंडक्टर की आर्मी बस संचालकों से कहा-सुनी हो जाती है, तो उसे मारपीट का शिकार होना पड़ता है। टांडा कोतवाली और बसखारी थाने ने कुछ बसों गोल्डन, वैभव, एसबीएस, और ‘आर्मी’ बस को सीज़ किया है। परंतु सैकड़ों बसों में से मात्र 10-15 पर की गई कार्रवाई ऊँट के मुँह में ज़ीरा साबित हो रही है। वहीं, एआरटीओ पूरी तरह निष्क्रिय नजर आ रहे हैं। जब सोशल मीडिया पत्रकार या स्थानीय मीडियाकर्मी परिवहन विभाग से सवाल करते हैं तो अधिकारी उन्हें गंभीरता से न लेकर ‘कानूनी पाठ’ पढ़ाने लगते हैं और खुद को पाक-साफ़ साबित करने की कोशिश करते हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या वे वाकई कार्रवाई करने को इच्छुक हैं। सरकार बेरोजगारों के लिए रोडवेज में भर्तियाँ निकाल रही है, लेकिन हकीकत में जब युवा ड्राइवर ड्यूटी पर पहुँचते हैं, तो उन्हें यात्री नहीं मिलते। पुराने वाहनों, अधिक किराए और निजी बसों की भरमार के चलते रोडवेज चालकों की कमाई घटकर महज ₹3000–₹4000 प्रति माह रह जाती है, जिससे वे पुनः बेरोजगार हो जाते हैं।सिर्फ इतना ही नहीं—रोडवेज में काम करने वाले ड्राइवरों को साइड शीशा, धुलाई, डीज़ल और मेकैनिकल खर्चे खुद उठाने पड़ते हैं। अच्छे वाहनों पर ड्यूटी पाने के लिए भी पैसे देने पड़ते हैं, जो सरकारी व्यवस्था की गहरी खामियों की ओर इशारा करता है।